कल ही एक नज़्म भेजने के बाद, आज न जाने क्यों बहुत मन हो रहा है कि एक दोऔर
पुरानी नज़्में सबसे बाँट लूँ। आशा है आप सब अन्यथा नहीं लेंगे।
नज़्म -
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
हौले-हौले से कोई मीठी सी
बात करती थी मेरे कानों में
मेरे कांधों पे अपना सर रख के
जैसे वो दिन अभी गए ही नहीं
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
वो ही गेसू थे वो ही आँखें थीं
वो लरजते हुए से लब तेरे
जैसे खाई अभी कसम कोई
मेरे हाथों को हाथ में ले कर
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
मेरे पहलू में बैठ हँसते हुए
मेरे हाथों को चूमना तेरा
वो ही बातें वही छुअन तेरी
नींद टूटी तो आँख भर आई
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
रवि कांत अनमोल
2. नज़्म- देवी नहीं हूँ मैं
देवी नहीं हूँ
नारी हूँ मैं
नर की ही तरह
हाड माँस से बनी नारी
मुझमें भी वही भावनाएं वही इच्छाएं हैं
जो होती हैं एक नर में
मेरी ज़रूरतें, मेरे जज़्बात भी
वैसे ही धड़कते हैं
मेरे मन में , मेरे मस्तिष्क में
मेरी रूह में मेरे शरीर में
जैसे किसी भी नर के धड़कते हैं
क्योंकि मुझे भी बनाया है
प्रकृति ने उसी तरह
जैसे किसी नर को
फिर पता नहीं क्यों
इस जीती जागती, हाड माँस की
नारी को क्यों समझ लिया जाता है
कोई पत्थर की प्रतिमा
और बैठा दिया जाता है उसे देवी बनाकर
जिसे आज्ञा नहीं है
अपनी भावनाएं व्यक्त करने की
अपनी इच्छाएं पूरी करने की
उसके मन मस्तिष्क
रूह और शरीर के साथ धड़कते जज़्बात को
बताने तक पर पाबंदी है
पता नहीं कब समझेगा यह समाज
कि मुझे भी हक है
अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का
अपनी इच्छाएं पूरी करने का
अपने जज़्बात को व्यक्त करने का
आखिर नारी हूँ मैं
कोई देवी नहीं।
रवि कांत अनमोल
पुरानी नज़्में सबसे बाँट लूँ। आशा है आप सब अन्यथा नहीं लेंगे।
नज़्म -
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
हौले-हौले से कोई मीठी सी
बात करती थी मेरे कानों में
मेरे कांधों पे अपना सर रख के
जैसे वो दिन अभी गए ही नहीं
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
वो ही गेसू थे वो ही आँखें थीं
वो लरजते हुए से लब तेरे
जैसे खाई अभी कसम कोई
मेरे हाथों को हाथ में ले कर
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
मेरे पहलू में बैठ हँसते हुए
मेरे हाथों को चूमना तेरा
वो ही बातें वही छुअन तेरी
नींद टूटी तो आँख भर आई
आज फ़िर ख़ाब में तुझे देखा
रवि कांत अनमोल
2. नज़्म- देवी नहीं हूँ मैं
देवी नहीं हूँ
नारी हूँ मैं
नर की ही तरह
हाड माँस से बनी नारी
मुझमें भी वही भावनाएं वही इच्छाएं हैं
जो होती हैं एक नर में
मेरी ज़रूरतें, मेरे जज़्बात भी
वैसे ही धड़कते हैं
मेरे मन में , मेरे मस्तिष्क में
मेरी रूह में मेरे शरीर में
जैसे किसी भी नर के धड़कते हैं
क्योंकि मुझे भी बनाया है
प्रकृति ने उसी तरह
जैसे किसी नर को
फिर पता नहीं क्यों
इस जीती जागती, हाड माँस की
नारी को क्यों समझ लिया जाता है
कोई पत्थर की प्रतिमा
और बैठा दिया जाता है उसे देवी बनाकर
जिसे आज्ञा नहीं है
अपनी भावनाएं व्यक्त करने की
अपनी इच्छाएं पूरी करने की
उसके मन मस्तिष्क
रूह और शरीर के साथ धड़कते जज़्बात को
बताने तक पर पाबंदी है
पता नहीं कब समझेगा यह समाज
कि मुझे भी हक है
अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का
अपनी इच्छाएं पूरी करने का
अपने जज़्बात को व्यक्त करने का
आखिर नारी हूँ मैं
कोई देवी नहीं।
रवि कांत अनमोल
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